Monday, 7 July 2025

कहानी - Story || New Path - नया रास्ता

ध्याय 1: नया रास्ता
भाग 1: स्टेशन जहाँ कोई नहीं उतरता
"जहाँ रास्ता खत्म होता है, वहाँ रहस्य शुरू होता है..."

शुबहम एक नए गांव की ओर निकलता है, लेकिन यह सफर केवल एक नई जगह का नहीं एक ऐसे रहस्य की शुरुआत है, जो उसकी जिंदगी को हमेशा के लिए बदल देगा। हर मोड़ पर छुपे हैं संकेत, और हर सन्नाटा कुछ कहता है.
अगर आप चाहें तो एक और वैकल्पिक शॉर्ट डिस्क्रिप्शन भी बना सकता हूँ एकदम क्रिस्प और डायलॉगनुमा शैली में।



 भाग 1: स्टेशन जहाँ कोई नहीं उतरता

साल का आख़िरी महीना था, दिसंबर की ठंडी हवा रात को और भी चुभने वाली बनाती थी। हवा में सिहरन थी, और सड़कों पर धुंध की मोटी चादर लिपटी हुई थी, जैसे आसमान ने ज़मीन से सारे राज़ छुपा रखे हों।

शुभम अपने पुराने सफेद बैग को कस कर पकड़ चुका था, जिसकी ज़िप कई जगहों से टूटी हुई थी। वह रेलवे स्टेशन की तरफ जा रहा था — मगर यह कोई आम सफर नहीं था। उसके चेहरे पर कोई उत्साह नहीं था, न ही डर, बस एक ठहरी हुई बेचैनी। आंखों के नीचे हल्के काले घेरे, गालों पर हल्की झुर्रियां, और माथे पर तनाव की सीधी लकीरें थीं — जैसे कोई बहुत कुछ खो चुका हो, और अब कुछ ढूंढने निकल पड़ा हो।

शुभम को यह भी ठीक से याद नहीं था कि उसने "निशानगढ़" का नाम पहली बार कहाँ सुना था। बस इतना याद था कि एक पुरानी किताब के पिछले पन्ने पर यह नाम लिखा था — "अगर खुद से मिलना हो, तो वहाँ जाना जहाँ से सब लौट आते हैं।" और नीचे लिखा था: “निशानगढ़ स्टेशन”।

🚉 रात की गाड़ी और अजनबी टिकट

दिल्ली स्टेशन की आख़िरी लोकल गाड़ी चलने ही वाली थी। ठंड से काँपते हुए शुभम टिकट खिड़की तक पहुँचा। “कहाँ जाना है?” खिड़की के पीछे बैठा बूढ़ा कर्मचारी बिना देखे पूछता है। शुभम ने हिचकिचाते हुए कहा, “निशानगढ़।”

वह आदमी एकदम रुक गया। उसने पहली बार शुभम की ओर देखा — जैसे यह नाम सुनना किसी पुरानी डरावनी कहानी की याद दिला रहा हो। उसकी आंखें सिकुड़ गईं, और होंठ थरथराने लगे। “वो रास्ता अब बंद है… कोई नहीं जाता वहाँ।” “मुझे जाना है,” शुभम ने दृढ़ता से कहा। कुछ देर बाद उस आदमी ने एक पीली सी टिकट निकालकर शुभम के हाथ में रख दी। टिकट पर न स्टेशन का नाम स्पष्ट था, न कोई सीट नंबर। बस लिखा था — “जनरल: एक तरफ़ा”।

🕰️ प्लेटफॉर्म नंबर 13

प्लेटफॉर्म पर पहुँचते ही शुभम ने महसूस किया कि यहाँ कुछ अलग है। वहाँ खड़े लोग सामान्य नहीं लग रहे थे। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। सबकी आँखें खाली थीं — जैसे आत्मा शरीर में हो ही नहीं।

ट्रेन आई पुरानी सी, जंग लगी बॉडी, टूटी हुई खिड़कियाँ, और अंदर अजीब सी अंधेरी रोशनी। लोग चुपचाप उसमें चढ़ रहे थे न कोई चढ़ने की हड़बड़ी, न उतरने की। शुभम ने जब कोच के अंदर कदम रखा, तो उसे ऐसा लगा जैसे समय धीमा हो गया है। हर कदम एक बोझिल सन्नाटे में डूबता जा रहा था।

🚪 कोच का रहस्य

कोच के अंदर कुछ लोग पहले से बैठे थे, मगर किसी की आंखें नहीं खुली थीं  सब गहरी नींद में डूबे हुए लग रहे थे। कुछ की गर्दनें टेढ़ी थीं, कुछ के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे कोई बुरा सपना देख रहे हों। शुभम ने एक कोने में बैठने की कोशिश की, लेकिन सीट एकदम ठंडी थी  जैसे बर्फ का पत्थर हो। दीवार पर एक पुराना कैलेण्डर टंगा था  साल 1987। उसे लगा शायद किसी ने मज़ाक में लटका दिया होगा, लेकिन तभी उसकी नज़र कैलेण्डर के नीचे एक शब्द पर पड़ी: “वापसी मना है।”

🕯️ गाड़ी की गड़गड़ाहट और अंधेरा

ट्रेन चल पड़ी — मगर कोई आवाज़ नहीं हुई। इंजन की कोई सीटी नहीं, कोई झटका नहीं। गाड़ी ऐसे चल रही थी जैसे हवा में तैर रही हो। खिड़कियों के बाहर सब कुछ काला था — न कोई पेड़, न स्टेशन, न रोशनीबस एक गहराता हुआ अंधेरा।
अचानक कोच में लाइटें झपकने लगीं। शुभम ने सामने देखा — एक बच्चा खड़ा था। सफेद कपड़ों में, मगर चेहरा बिल्कुल साफ नहीं दिख रहा था। उसकी आंखें अंधेरे में चमक रही थीं। “आप फिर से आ गए?” बच्चे ने कहा। शुभम का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। “मैं... पहले भी आया था?” उसने खुद से पूछा। लेकिन वह बच्चा अब गायब हो चुका था।

यहाँ तक भाग 1 समाप्त होता है।

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